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मेलों से नहीं दृष्टिकोण में परिवर्तन से होगा बचपन संरक्षित

बाल अधिकार एक ऐसा विषय है जिसे वैश्विक स्तर पर जितनी अहमियत दी गई है उसकी तुलना में हमारे देश में आजादी के बाद 6-7 दशक तक यह अनदेखा रहा और इसी अनदेखी के चलते समय की मांग के अनुसार न तो कोई नई दृष्टि विकसित हो पाई है और न ही हम अपनी उस पंरपरा को संजोकर रख पाए जिसमें बच्चा समाज की जिम्मेदारी होता था और पूरा समाज उसके विकास तथा संरक्षण के लिए कार्य करता था। किसी बच्चे के विकास और संरक्षण के लिए सबसे जरूरी यह होता है कि उसके प्रति समाज और सरकार का दृष्टिकोण क्या है। अगर आजादी के बाद से देखे तो लंबे समय में ऐसा कोई भी दृष्टिकोण विकसित नहीं हुआ जिसमें बच्चे के हित्त को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए उसके विकास और संरक्षण की दिशा में पर्याप्त कार्य हुआ हो। इसके उलट अनदेखी के कारण भारत की पुरातन परंपरा भी धूमिल पड़ने लगी जहां समाज ने ही बच्चे को संरक्षण दिया और उसके विकास के समान अवसर मुहैया कराए।

वैश्विक स्तर पर प्रयासो की बात करें तो बाल अधिकारों की महत्ता को समझते हुए संयुक्त राष्ट्र महासभा के द्वारा 20 नवंबर को इसे विशेष रूप से बाल अधिकार दिवस के रूप में निर्धारित किया गया है। हालांकि ऐसा नहीं है कि भारत में बच्चों को लेकर ऐसा प्रयास नहीं किया गया है। बाल दिवस एक ऐसा ही प्रयास है। किंतु अगर दृष्टिकोण की बात करें तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जहां बच्चों के अधिकारों को प्राथमिकता दी गई है वहीं भारतीय बाल दिवस लोक लुभावन मेलों से परे अपनी पहचान नहीं बना पाया और इसका समाज के दृष्टिकोण में बदलाव की कोई छाप दृष्टिगोचर नहीं हुई। जबकि ऐतिहासिक रूप सेभारत अपने सांस्कृतिक लोकाचार और सामाजिक आचरण के माध्यम से बच्चों के अधिकारों की पुरजोर वकालत और मान्यता देता रहा है। यह स्वतंत्रता के बाद हमारे संविधान में विशिष्ट अधिकारों में अनुवादित हो गया और कालांतर में बाल अधिकार संरक्षण संबंधित कानूनों में समाहित हुए। हाल ही में किशोर न्याय अधिनियम, 2015 और पोक्सो अधिनियम, 2012 के तहत संशोधन जैसे बच्चों के लिए ऐतिहासिक प्रावधान किए गए हैंजिससे इन्हें और अधिक प्रभावी बना गया है। इसके अलावापीएम केयर्स ने कोविड से प्रभावित सभी बच्चों को संरक्षण प्रदान करने का महत्वपूर्ण कार्य किया गया है।

     भारतीय परिपेक्ष्य में मनाए जाने वाले बाल दिवस में लुभावन और मनोरंजन के साधनों को प्राथमिकता दी गई है न कि ऐसे प्रयासों को जो बच्चों को मानसिक और आत्मिक तौर पर सशक्त करे और उनका संरक्षण सुनिश्चित करे। भवनों और मॉल में आयोजित होने वाले मेलों और आयोजनों में केवल वही बच्चे पंहुच पाते हैं जिनकी अधिकारो तक पहुंच है, किंतु यह आय़ोजन असल जरूरत वाले बच्चों की पंहुच से दूर रहे और न हीं उन बच्चों के जीवन में इससे कोई अमूलचूल परिवर्तन आया जो आज भी सड़क पर जीवन व्यतीत करने तथा भिक्षावृति व बाल मजदूरी में अपना बचपन खो रहे हैं। इन्हीं लोक लुभावन आयोजनों में अंतर्राष्ट्रीय बाल अधिकार दिवस भी धूमिल पड़ गया और बच्चों के अधिकार के असल मुद्दों की चर्चा के परे हम मेले के आयोजनों में फंसे रहे।

     बाल अधिकारों के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव समय की गहरी मांग है और बच्चों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए समग्र समाधान आधारित दृष्टोकण को अपनाने की जरूरत है। उल्लेखनीय है कि गरीबी और परिवार की असक्षमता एक ऐसा कारण है जिसका खामियाजा बच्चों को भुगतना पड़ता है और वह कभी बाल मजदूरी के लिए मजबूर होते हैं तो कभी तस्करों के चंगुल में फंसकर मानसिक औऱ शारीरिक शोषण का शिकार होते हैं। इस समस्या की ओर कभी गंभीरता से नहीं सोचा गया। इस समस्या का समाधान भी हमारी वर्तमान व्यवस्था में उपलब्ध है, जिसे चिन्हित कर एनसीपीसीआर ने परिवार को उन सभी योजनाओं से जोड़ने का कार्य शुरू किया है, जिससे अंततः बच्चे परिवार में रह पाए और उनका लालन पालन बच्चे के नजरिए से सबसे उपयुक्त इकाई परिवार में हो सके।

     यहां पर एक और बात जिसपर सबसे ज्यादा ध्यान देने की है वह है बच्चे के विकास में समग्र समाज की भूमिका। चूंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज से परे उसके विकास और जीवन की अपनी सीमाएं हैं। इसलिए अगर बच्चों के अधिकारों को सुनिश्चित करना है तो समाज के हर एक व्यक्ति को अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। इसके लिए आवश्यक है कि बच्चों के अधिकारों के प्रति जागरूकता लाने के लिए देश को बाल दिवस से बाल अधिकार दिवस की ओर कदम बढ़ाना पडेगा और सांकेतिकता से अधिक सार्थक प्रयास किए जाने की अवश्यकता है।

प्रियंक  कानूनगो

(लेखक प्रियंक  कानूनगो राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) के अध्यक्ष हैं और ये उनके निजी विचार हैं।)

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